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आठवां अध्याय
अश्विन् इन्द्र, विश्वेदेवाः
मधुच्छच्छन्दस्का तीसरा सूक्त फिर सोमयज्ञका सूक्त है । इसके पूर्ववर्ती दूसरे सूक्तकी तरह यह भी तीन-तीन मन्त्रोंकी शृंखलाओंसे जुड़कर बना है। इसमें ऐसी चार शृंखलाएँ हैं । पहिली शृंखला अर्थात् पहिले तीम मन्त्र अश्विननोंको संबोधित किये गये हैं, दूसरे, तीसरे 'विश्वेदेवा:'को और चौथे देवी सरस्वतीको । इस सूक्तमें भी हमें अन्तकी कड़ी. में, जिसमें सरस्वतीका आवाहन है एक ऐसा संदर्भ मिलता है जो स्पष्ट अध्यात्मपरक भाव रखता है, और वस्तुत: वह उनकी अपेक्षा कहीं अधिक साफ है जो संदर्भ अबतक हमें वेदके रहस्यमय विचारको समझनमें सहायक हुए हैं ।
परन्तु यह सारा-का-सारा सूक्त अध्यामपरक संकेतोंसे भरा हुआ है और इसमें हम वह परस्पर घनिष्ठ संबन्ध, बल्कि वह तादात्म्य पाते हैं जिसे वैदिक ऋषि मानव-आत्माकी रुचिके तीन मुख्य विषयोंमें स्थापित करना और पूर्ण करना चाहते थे, वे तीन विषय ये ह--विचार तथा इसके अन्तिम विजयशाली प्रकाश, कर्म तथा इसके चरम श्रेष्ठतम सर्वसाधक बल, भोग तथा इसके सर्वोच्च आत्मिक आनन्द । सोम-रस प्रतीक है हमारे सामान्य ऐन्द्रियक सुखभोगको दिव्य आनन्दमें स्थान्तरित कर देनेका । यह रूपान्तर हमारी विचारमय क्रियाको दिव्य बनानेके द्वारा सिद्ध होता है, और जैसे-जैसे यह क्रमश: बढ़ता है वैसे-वैसे यह अपनी उस दिव्यीकरणकी क्रियाको भी पूर्ण बनानेमें सहायक होता है जिसके द्वारा यह सिद्ध किया जाता है । गौ, अश्व, सोमरस ये इस त्रिविध यज्ञके प्रतीकचिह्न हैं । 'घृत' अर्थात् घीकी हवि जो गायसे मिलती है, घोड़ेकी हवि, 'अश्वमेध', सोमके रसकी हवि- ये इसके तीन रूप या अंग हैं । अपेक्षाकृत कम प्रधान एक और हवि है अपूपकी, जो संभवतः शरीरका, भौतिक वस्तुका प्रतीक है ।
प्रारम्भमें दो अश्विनौका आवाहन किया गया है जो अश्वोंवाले हैं, 'घुड़-सवार' हैं प्राचीन भूमध्यतटवर्ती गाथाशास्त्रके कैस्टर ( Castor) तथा पोलीडचूसस (Polydeuces) हैं । तुलनात्मक गाथाशास्त्रोंकी कल्पना यह है कि ये अश्विन् दो युगल तारोंको सूचित करते हैं, जो तारे किसी कारण आकाशीय तारासमूहके अन्य तारोंकी अपेक्षा अधिक भाग्यवान् थे १२२
कि आर्यलोग इनकी विशेष पूजा करते थे । तो भी आइये हम देखें कि जिस सूक्तका हम अध्ययन कर रहे हैं उसमें इनके विषयमें क्या-क्या वर्णन किया गया है । सबसे पहले इनका वर्णन आता है, "अश्विन्, तीव्रगामी सुखके देवता, बहुत आनन्द-भोग करनेवाले-द्रवत्पाणी पुरुस्पती, पुरुभूजा |'' 'रत्न' और 'चन्द्र' शब्दोंके समान 'शुभ' शब्दका अर्थ किया जा सकता है या तो प्रकाश या भोग; परन्तु इस ' संदर्भमें यह "पुरुभूजा, --बहुत सुखभोग करनेवाले'' इस विशेषणके साथ और ''चनस्यतम्, -आनन्द लो" इस क्रियाके साथ आया है और इसलिये इसे 'भला' या 'सुख' के अर्थमें लेना चाहिये ।
आगे इन युगलदेवताओंका वर्णन आता है, ''अश्विन्, जो. बहुकर्मा दिव्य आत्माएं हैं-- 'पुरुदंससा नरा', विचारको धारण करनेवाले हैं-- 'पुरुदंससा नरा', विचारको धारण करनेवाले हैं--'धिष्ण्या'' जो मन्त्रकी वाणियोंको स्वीकार करते है, और उनमें प्रमुदित होते है-- 'वनतं गिर:' , एक बलवान् विचारके साथ 'शवीरया धिया' ।'' 'नृ' वेदमें देवताओं और मनुष्यों दोनोंके लिये प्रयुक्त होता है और इसका. अर्थ खाली मनुष्य ही नही होता, मैं समझता हूं, प्रारम्भमें इसका अर्थ था 'बलवान्' या 'क्रियाशील' और फिर इसका अर्थ हो गया 'पुरुष', और इसका प्रयोग पुल्लिंग देवोंके लिये, कर्मण्य दिव्य आत्माओं या शक्तियोंके लिये, 'पुरुषा:' के लिये हुआ है जो उन स्त्रीलिंगी देयताओं, 'ग्ना'से उल्टे हैं, जो उन पुल्लिंग देवोंकी शक्तियाँ हैं । फिर भी ऋषियोंके मनोंमें बहुत अंशोंमें इसका प्रारभिक मौलिक अर्थ सुरक्षित रहा, जैसे कि हमें बलवाची 'नृम्ण' शब्दसे और '' नृतमो तृणाम्'' अर्थात् दिव्य शक्तियोंमें सबसे अघिक! वलबान् , इस वाक्यांश से पता लगता है । 'शवस्' और इससे बना विशेषणरूप 'शवीर' बैलके भाव को देते हैं, परन्तु ज्वाला और प्रकाशका अगला विचार भी सदा इसके साथ रहता है; इसलिये 'शवीर' 'घी' के लिये बहुत ही उपयुक्त विशेषण है, विचार जौ प्रकाशमय या विद्योतमान शक्तिसे भरपूर है ।'' 'धिष्ण्या' अर्थात् बुद्धि या समझके साथ है और इसकी सायणने अनुयाद किया है, बुद्धिसे युक्त, 'बुद्धिमन्तौ' ।
आगे फिर अश्विनौका वर्णन आता है, 'जो कर्ममें सही उतरनेवाले हैं; गतिकी शक्तियां हैं, अपने मार्ग पर भीषणताके साथ गति करनवाले हैं,--द्स्त्रा, नासत्या रुद्रव्रत्नी । 'द्स्त्र' ', 'दस्म' इन वैदिक विशेषणोंका अनुवाद निरपेक्ष भावसे सायणने अपनी मन की मौज या सुमीतेके अनुसार 'नाशक' या 'दर्शनीय' या 'दानी' कर दिया है । मैं इसे 'दस्' धातुके साथ जोड़ता हूं, पर 'दस्'का अर्थ मै यहां काटना या विभक्त करना नहीं लेता जिससे की नाश करने ओर दान करनेके दो अर्थ निकलते हैं, नाहीं इसका अर्थ १२३
'विवेक, दर्शन' लेता हूं जिससे सायणने सुन्दरका, ' दर्शनीय'का अर्थ लिया है, परन्तु मैं इसे कर्म करने, क्रिया करने, आकृति देने, पूर्ण करनेके अर्थमें लेता हूं, जैसा कि दूसरी ॠचामें 'पुरुदंससा'में है । नासत्याके विषयमें कइयोंने यह कल्पनाकी है कि यह, गोत्र-नाम हैं, प्राचीन वैयाकरणोंने बड़े बुंद्धिक्रौशलके साथ इसके लिये 'सच्चे, जो असत्य नहीं हैं' यह अर्थ गढ़ लिया था; परन्तु मैं इसकी निष्पत्ति चलनार्थक 'नस्' धातुसे करता हूं । हमें यह अवश्य स्मरण रखना चाहिये कि अश्विन् घुड़सवार हैं, कि उनका वर्णन बहुधा गतिसूचक विशेषणोंसे हुआ है, जैसे 'तीव्रगामी' (द्रवत्पाणी) , 'अपने मार्ग पर रूद्रताके साथ चलनेकले' ( रुद्रवर्तनी ); कि ग्रीसो-लैटिन ( Graeco-Latin) गाथाशास्त्रमें कैस्टर (Castor) और पोलक्स (Pollux) समुद्रयात्रामें नाविकोंकी रक्षा करते है और तूफानमें तथा जहाज टूट जाने पर उन्हें बचाते है., और यह कि ऋग्वेदमें भी ये उन शक्तियोंके सूचफ हैं जो ऋषियोंको नौकाकी तरह पार ले जाती हैं अथवा उन्हें समुद्रमें डूबनेसे बचाती हैं । इसलिये 'नासत्या'का यह बिल्कुल उपयुक्त अर्थ जान पड़ता है कि जो समुद्रयात्राके, प्रयाणके देवता हैं या प्रगतिकी शक्तियां हैं । 'रुद्र-वर्तनी'का भाष्य अर्वाचीन विद्वानोंने किया है ''लाल रास्तेवाले'' और यह मान लिया है कि यह विशेषण तारोंके लिये : बिल्कुल उपयुक्त है और वे उदाहरणके लिये इसके समान दूसरे शब्द 'हिरण्यवर्तनी'को प्रस्तुत करते हैं, जिसका अर्थ होता है 'सुनहरे या चमकीले रास्तेवाले' । 'रूद्र'का अर्थ एक समयमें "चमकीला, गहरे रंगका, लाल" यह अवश्य रहा होगा, जैसे 'रुष्' और 'रुश्' धातु इस अर्थके वाचक हैं, जैसे रुधिर, 'रक्त' या 'लाल' का वाचक है, अथवा जैसे लैटिन भाषाके रूवर (ruber) रुटिलस (rutilus) रुफस (rufus)--इन सबका अर्थ 'लाल' है | 'रोदसी'का, जो आकाश तथा पृथिवीक अर्थमें एक द्वन्द्ववाची शब्द है, संभवत: अर्थ था, ''चमकीले'' जैसे कि आकाशीय तथा पार्थिव लोकोंके वाचक दूसरे वैदिक शब्दों 'रजस्' और 'रोचना'का है । दूसरी ओर क्षति और हिंसाका अर्थ भी इस शब्द-परिवारमें समान रूपसे अन्तर्निहित है और लमभग उन सब विविध धातुओंमें जिनसे ये बनते हैं, पाया जाता है । इसलिये ' रुद्र' का 'भीषण' या 'प्रचण्ड' यह अर्थ भी उतना ही उपयुक्त है, जितना '' लाल'' । अश्विन् दोनों हैं 'हिरण्यवर्तिनी' तथा 'रुद्रवर्तनी', क्योंकि वे प्रकाशकी और प्राण-बलकी, दोनों-की शक्तियाँ हैं;. पहले रूपमें उनकी. चमकीली सुनहरी गति होती है, पिछले ?रूपमें वे अपनी गतियोंमें प्रचण्ड होते हैं । एक मन्त्र ( 5 .75. 3 ) में हम स्पष्ट इकट्ठा पाते हैं 'रुद्रा हिरण्यवर्तनी', रौद्र तथा प्रकाशके मार्गमें चलने-- १२४
वाले. अब इस मन्त्रवचनमें अभिप्रायकी संगतिका यदि जरा भी ख्याल किया जाय तो यह अर्थ हमारी समझमें नहीं आ सकता कि तारे तो लाल हैं पर उनकी गति या उनका मार्ग सुनहरा है ।
फिर यहां, इन तीन ऋचाओंमें आध्यात्मिक व्यापारोंकी एक असाधारण शृंखला है, क्या वह एक आकाशीय तारामण्डलके दो तारों पर लागू होगी ! यह स्पष्ट है कि यदि अश्विनोंका प्रारम्भिक भौतिक स्वरूप कभी यह था भी, तो वे ग्रीक गाथाशास्त्रकी भांति यहां भी अपने विशुद्ध तारासंबंधी स्वरूपको चिरकालसे खो चुके हैं और उन्होंने एथेनी ( Athene), उषाकी देवी, की तरह एक आध्यात्मिक स्वरूप और व्यापारोंको पा लिया है । वे घोड़ेकी, ' अश्व'की सवारी करनेवाले हैं, जो अश्व शक्तिका और विशेषकर जीवन-शक्ति और वातशक्तिका -प्राणका-प्रतीक है । उनका सामान्य स्वरूप यह है कि वे आनन्द-भोगके देवता हैं, मधुको खोजनेवाले हैं, वे वैद्य हैं, वे फिरसे बूढ़ेको जवानी, रोगीको आरोग्य, अंगहीनको संम्पूर्णागता प्राप्त करा देते हैं । उनका एक दूसरा स्वरूप तीव्र, प्रचण्ड, अधृष्य गतिका है, उनका वेगवान् अजेय रथ स्तुतिका सतत पात्र है और यहाँ उनका वर्णन इस रूप-में किया गया है कि वे तीव्रगामी हैं और अपने मार्ग पर प्रचण्डतासे चलनेवाले हैं । ये अपनी तीब्रतामें पक्षियोंके समान, मनके समान, वायुके समान हैं ( देखो 5.77. 3 और 78-1 ) 1 । वे अपने रथमें मनुष्यके लिये परिपक्व या परिपूर्ण सन्तुष्टियोंको भरकर लाते हैं, वे आनन्दके, 'मयस्' के, निर्माता हैं । मे निर्देश पूर्णरूपसे स्पष्ट हैं ।
इनसे मालूम होता है कि अश्विन् दो युगल दिव्य शक्तियाँ हैं, जिनका मुख्य व्यापार है मनुष्यके अन्दर क्रिया तथा आनन्दभोगके रूपमें वातमय या प्राणमय सत्ताको पूर्ण करना । परन्तु साथ ही वे सत्यकी, ज्ञानयुक्त कर्म-की ओर यथार्थ भोगकी शक्तियाँ भी हैं । ये वे शक्तियां हैं जो उषा के साथ प्रकट होती हैं, क्रियाकी ने अमोध शक्तियाँ हैं जो चेतनाके समुद्रमेंसे पैदा हुई हैं ( सिंधुमातरा ),,और जो दिव्य ( देवा ) होनेके कारण सुरक्षित रूपसे उच्चतर सत्ताके ऐश्वर्योंको मनोमय कर सकती हैं (मनोतरा रयीणाम् ), उस विचांर-शक्तिफे द्वारा मनोमय कर सकती हैं जो उस सच्चे तत्त्वको और सच्चे ऐश्वर्यको पा लेती है या जान लेती है ( धिया वसुविदा ) --
या वस्त्रा सिन्धुमातरा, मनोतरा रयीणाम् । धिया देवा वसुविदा ।। ( १.४६. २ ) ____________________
1. मनोजवा अश्विना वातरंहा, 5.77.3 ; ईसाविव पतमन्, 5.78.1 १२५
इस महान् कार्यके लिये वे उस प्रेरक शक्ति (इषम् ) को देते हैं (रास् ) जो अपमे स्वरूप और सारवस्तुके रूपमें अपनेमें सत्यकी ज्योतिको रखती हुई ( ज्योतिष्मती ) मनुष्यको अन्धकारसे परे ले जाती है (तमस्तिर: पीपरत् ),
या नः पीपरदश्चिना ज्योतिष्मती तमस्तिरः । तामस्मे रासाषामिषम् ।। ( 1. 46.6 ) . वे मनुष्यको अपनी नौकामें बैठाकर उस परले किनारे पर पहुंचा देते हैं जो विचारों तथा मानव मनकी अवस्थाओंसे परे है, अर्थात् जो अतिमानस चेतना है--नावा मतीनां पाराय ( 1. 46. 7 ) । 'सूर्या जो सत्यके देवता सूर्यकी दुहिता है, उनकी वधु बनकर उनके रथ पर आरूढ़ होती है ।
प्रस्तुत सूक्तमें. अश्विनोंका आवाहन इस रूपमें किया गया है कि वे आनन्दके तीब्रगामी देवता हैं, वे अपने साथ अनेक सुखभोयोंको रखते हैं, वे आकर यज्ञकी प्रेरक शक्तियोंमें आनन्द लेवें --यज्वरी: इषः चनस्यातम् । ये प्रेरक शक्तियां, स्पष्ट ही सोमरसके पीनेसे अर्थात् दिव्य आनन्दके अन्त:- प्रवाहसे उत्पन्न होती हैं । क्योंकि अर्थपूर्ण वाणियाँ (गिर: ) जिन्हें चेतनामें नचीन रचनाओंको करना है, पहलेसे ही उठरही हैं, यज्ञका आसन बिछाया जा चुका है, सोमके शक्तिशाली रस निचोड़े आ चुके हैं1 । अश्विनोंको क्रियाकी अमोध शक्तियोंके 'पुरुदंससा नरा'के रूपमें आना है वाणियोंमें आनन्द लेनेके लिये और उन्हें बुद्धिके अन्दर स्वीकार करनेके लिये जहां कि वे प्रकाशमय शक्तिसे परिपूर्ण विचारके द्वारा क्रियाके लिये धारित रखी जायंगी ।2 उन्हें सोम-रसकी हविके समीप आना है, इसलिये कि वे यज्ञकी क्रियाको निष्पन्न कर सकें, 'दस्रा', उन्हें क्रियाको पूर्ण करनेवालोंके रूपमें आना है और उन्हें इसे पूर्ण करना है क्रियाके आनंदको अपनी वह भीषण गति प्रदान करके 'रुद्रवर्तनी' जो उन्हें बेरोकटोक उनके मार्ग पर ले जाती है और सब विरोधोंकी दूर कर देती है । वे आते हैं इस रूपमें कि वे आर्योंकी यात्राकी शक्तियां हैं, महान् मानवीय प्रगीतके अधिपति हैं, नासत्या । सब जगह हम देखते हैं कि जो चीज इन घोड़ेके सवारोंको देनी है वह शक्ति ही है; उन्हें आनन्द लेना है यज्ञिय शक्तियोंमें, वाणीको ग्रहण करना है एक शक्तिशाली विचारमें ऊपर ले जानेको, यज्ञको वह गति देनी है जो मार्ग पर चलनेकी उनकी अपनी भीषण गति है । और शक्तिकी इस मांगका उद्देश्य यह है कि क्रिया कार्य-साधक बन जाय और महान् यात्रामें वेग आ जाय । ______________ 1. युवाकव: सुता वृक्तबर्हिष: । 2. शवीरया धिया धिष्णाय वनतं गिर:
१२६ मैं पाठकके ध्यानको विचारकी उस स्थिरताकी ओर और रचनाकी उस सगतिकी ओर तथा रूपरेखाकी उस सुबोध स्पष्टता और निश्चयात्मकताकी ओर सतत रूपसे आकर्षित करूंगा जो अध्यात्मपरक व्याख्याके द्वारा ॠषियों-के विचारमें आ जाती हैं, और इस अध्यात्मपरक व्याख्यासे कितनी भिन्न हैं वे उलझी हुई, अव्यवस्थित और असंगत तथा असंबद्ध व्याख्याएं जो वेदोंकी इस अत्युच्च परंपराकी उपेक्षा कर देती हैं कि वेद विद्याकी ओर गंभीरतम ज्ञानकी पुस्तक है ।
तो हम पहली तीन ॠचाओंका यह अर्थ पाते हैं--
''ओ घोड़ेके सवारो, तेज चालवालो, बहुत अधिक आनन्द लेनेवालो, सुखके अधिपतियो, तुम आनन्द लो यक्षकी शक्तियोंमें । !2 ''ओ घोड़ेके सवारो, अनेकरूप कर्मोंको निष्पन्न करनेवाले नर आत्माओ, वाणियोंका आनन्द लो; ओ तुम प्रकाशमय शक्तिसे युक्त विचारके द्वारा बुद्धिमें धारण करनेवालो ।''
''मैंने यज्ञका आसन बिछा दिया है, मैंने शक्तिशाली सोमरसोंको निचोड़ लिया है; क्रियाको पूर्ण करनेवालो, प्रगतिकी शक्तियो ! उन रसोंके पास तुम आओ, अपनी उस भीषण गतिके साथ जिससे तुम मार्ग पर चलते हो |''
जैसे कि दूसरे सूक्तमें वैसे ही इस तीसरेमें भी ऋषि प्रारम्भमें उन देवताओंका आवाहन करता, है जो वातिक या प्राणिक शक्तियोंमें कार्य करते हैं । पर वहां उसने पुकारा था 'वायु'को जो प्राणकी शक्तियोंको देता है, अपने जीवनके घोड़ोंको लाता है; यहाँ वह ''अश्विनौको पुकारता है जो प्राणकी शक्तियोंका प्रयोग करते हैं, उन घोड़ों पर सवार होते है । जैसे कि दूसरे सूक्तमें वह प्राण-क्रिया या वातिक क्रियासे मानसिक क्रिया पर आया था, वैसे ही यहां वह अपनी दूसरी शृंखलामें 'इन्द्र'की शक्तिका आवाहन करता है । निचोड़े हुए आनन्द-रस उसे चाहते हैं, सुता. इमे त्यायव: । वे प्रकाशयुक्त मनको चाहते हैं कि वह आवे और आकर अपनी क्रियओंके लिये उन्हें अपने अधिकारमें ले ले । वे शुद्ध किये हुए है, 'अण्वीभिस्तना', सायणकी व्याख्याफे अनुसार, ''अंगुलियों द्वारा और शरीर द्वारा'' पर जैसा मुझे इसका अर्थ प्रतीत होता है उसके अनुसार "पवित्र मनकी सूक्ष्म विचार-शक्तियोके द्वारा और भौतिक चेतनामें हुए विस्तारके द्वारा" । क्योंकि ये ''दस अंगुलियां हैं, जो सूर्या सूर्यकी दुहिता है, अश्विनोंकी वधू है । नवम मण्डलके प्रथम सूक्तमें यही ऋषि मधुच्छंदूस् इसी विचारको विस्तारसे कहता है, जिसें यहां वह इतने अधिक संक्षेपसे कह गया है | वह 'सोम'के देवताको संबोधित करता १२८
हुआ कहता है, ''सूर्यकी दुहिता तेरे सोमको शुद्ध करती है, जब कि यह सतत विक़ारके .द्वारा इसके छाननेकी चलनीमें बहकर चारों ओर फैल जाता है'', वारेण शश्वता तना ।1 तुरंत इसके साथ ही वह यह भी कह जाता है, ''सूक्ष्म शक्तियां अपने प्रयत्नमें ( या महान् कार्यमें, संघर्षमें, अभीप्सामें, 'समयें' ) इसे ग्रहण करती हैं, जो दस वधुएं हैं; बहिनें हैं, उस आकाशमें जिसे पार करना. है ।'' 2 यह एक ऐसा वाक्य है जो एकदम अश्विनोंकी उस नौकाका स्मरण करा देता है जो हमें विचारोंसे परे उस पार पहुंचा देती है; क्योंकि आकाश ( द्यौ ) वेदामे .विशुद्ध मानसिक चेतनाका प्रतीक है, जैसे कि पृथिवी भौतिक चेतनाका । ये बहिनें जो विशुद्ध मनके अन्दर रहती हैं, जो सूक्ष्म, 'अण्वी:' हैं, दस वधुएं, 'दश योषणा:' हैं, दूसरी जगह कही गयी हैं दस प्रक्षेप्त्री, 'दश क्षिप:', क्योंकि ये सोमको ग्रहण करती और इसे अपने मार्गमें गति दे देती हैं । ये संमभत: वे ही हैं जिन्हें वेदमें कहीं-कहीं दस किरणें, दश गाव: कहा गया है । वे इस रूपमें वर्णित की गयी प्रतीत होती हैं कि वे सूर्यकी पौत्रियाँ या संतान हैं, न्प्तीभिः विवस्वत: ( 9- 14-5 ) । उपर्युक्त शुद्ध किये जानेके कार्यमें विचारमय चेतनाके सात रूप, 'सप्त धीतय:' इनकी सहायता करते हैं । आगे हमें यह कहा गया है कि ''अपने आशुगामी रथोंके साथ शूरवीर हुआ-हुआ सोम सूक्ष्म विचारकी शक्तिके द्वारा, 'धिया अण्ठया', आगे बढ्ता है और इन्द्रकी पूर्ण क्रियाशीलता ( या उसके पूर्ण क्षेत्र ) तक पहुंचता है और दिव्यताके उस विशाल विस्तार ( या निर्माण ) तक पहुंचनेमें, जहां अमर देवता रहते हैं, वह विचारके अनेक रूपोंको ग्रहण करता हैं" । ( 9-15-1, 2 )
एव पुरू धियायते बृहते देवतातये । यत्रामृतास आसते ।।
मैंने इस विषयपर कुछ विस्तारसे विचार इसलिये किया है कि यह दिखा सकूं कि किस प्रकार वैदिक ऋषियोंका सोमवर्णन पूर्णतया प्रतीकात्मक है और कितना अधिक यह अध्यत्मपरक विचारोंसे घिरा हुआ है, जैसा कि उसे अच्छी प्रकार पता लग जायगा, जो नवम मण्डलमेंसे गुजरनेका यत्न करेगा, जिसमें प्रसीकात्मक अलंकारोंकी शोभा अत्यधिक प्रकट हुई है और जो अध्यात्मपरक संकेतोंसे भरपूर है ।
वह चाहे कैसे भी क्यों न हो, यहां मुख्य विषय सोम और इसका _____________ . 1. पुनाति ते परिस्त्रु तं सोम सूर्यस्य दुह्रिता । वरेण शश्वतात तना ।| 9-1-6 . 2. तमीमयवी: समर्य आ गृम्णन्ति योषणो दश । स्वसारः पार्ये दिदि ।। 9-1-7 १२९
शोधन नहीं है, वल्कि इन्द्रका आध्यात्मिक व्यापार है । इन्द्रको इस रूपमें संबोधित किया गया है कि वह अत्यधिक चित्रविचित्र दीप्तियोंवाला है, इन्द्र चित्रभानो । सोमरस उसे चाहते हैं । वह आता है विचार से प्रेरित किया हुआ, प्रफाशयुक्त विचारकसे अंदरसे आगे गति दिया हुआ, धियेषितो विप्रजूतः उस ऋषिके आत्मिक विचारोंके पास जो आनन्दकी मदिराको निचोड़ चुका है, और उन विचारोंको वाणीमें, अन्त:प्रेरित मंत्रोंमें व्यक्त करना चाहता है, सुतावत: उप ब्रह्याणि वाधतः । वह आता है उन विचारोंके पास, प्रकाशयुक्त मन :शक्तिकी गति और वेगके साथ, अपने .उज्ज्वल घोडोंसे युक्त, तूतुजाम उप ब्रह्याणि हरिवः ।. और ऋषि उससे प्रार्थना करता है कि वह आकर सोमकी हविमें आनन्दको दृढ़ करे या थामे, सुते दधिष्व नश्चनः । अश्विनौ आनन्दकी क्रिया में प्राण-संस्थानके सौख्यको ले आये है और उसे शक्ति दे दी है । ऋषिको इन्द्रकी आवश्यकता है कि वह आकर उस सौख्यको प्रकाशयुक्त मनके अंदर दृढ़तासे थाम ले, ताकि वह चेतनामेंसे निकलकर गिर न पड़े ।
''आ, हे इन्द्र ! अपनी अत्यधिक दीप्तियोंके साथ, थे सोमरस तुझे चाह रहे हैं; ये शुद्ध किये हुए हैं सूक्ष्म शक्तियोंके द्वारा और शरीरमें हुए .विस्तारके द्वारा ।''
''आ, हे इन्द्र ! मेरे आत्मिक विचारोंके पास आ, मन द्वारा प्रेरित हुआ-हुआ, प्रकाशयुक्त विचारके द्वारा आगे गति दिया हुआ, जिस मैंने सोमरसको अभिषुत कर लिया है और जो मैं अपने उन आत्मिक विचारोंको वाणीमें व्यक्त करना चाह रहा हूँ ।''
''आ, हे इन्द्र ! अपनी वेगवान् गतिके साथ मेरे आत्मिक विचारोंके पास आ, हे चमकीले घोड़ोंके अधिपति ! तू आ; आनन्दको दृढ़ताके साथ सोमरसमें थाम ले ।''
आगे चलकर ॠषि '' विश्वेदेवा '' सभी देवताओं अथवा किन्हीं विशेष 'सब देवताओं' पर आता है । इस विषयमें विवाद है कि इन ' विश्वेदेवा:' की अपनी कोई विशेष श्रेणी है अथवा यह शब्द केवल सामान्य रूपसे सभी देवगओंका वाचक है । मैं इसे इस रूपमें लेता हूँ कि इस पदका अर्थ है सामूहिक रूपमें विश्वकी सब दिव्य शक्तियाँ, क्योंकि जिन मन्त्रोंमें इनका आवाहन किया गया है उन मन्त्रोंके वास्तविक अर्थप्रकशनमें यह भाव मुझे अधिक-से-अधिक अनुकूल प्रतीत होता है । इस सूक्तमें उन्हें एक सामान्य क्रियाके लिये पुकारा गया है जो अश्विनों तथा इन्द्रके व्यापारोंमें सहायक होती है और इन्हें पूर्ण करती है | उन्हें सामूहिक रूपसे यज्ञमें आना है १२९ और उस सोमको अपने बीचमें बांट लेना है जिसे यज्ञकर्त्ता उन्हें समर्पित करता है; विश्वे देवास आगत, दाश्वांसों दाशुषः सुतम्; स्पष्ट ही इसलिये कि प्रत्येक अपने उचित व्यापारको दिव्य रूपसे तथा आह्लादक रूपसे कर सके । अगली ऋंचामें और अथिक आग्रहके साथ इसी प्रार्थनाको दोहराया गया है; वे सोमकी हविके पास जल्दीसे पहुँचें, तूर्णय:, अथवा इसका यह अर्थ हो सकता है कि वे आवें चेतनाके सभी स्तरों, 'जलों, के बीचमेंसे अपना मार्ग बनाते हुए, उन्हें पार करके आते हुए, जो स्तर कि मनुष्यकी भौतिक प्रकृतिको उनके देवत्वसे पृथक् किये हुए है और पृथ्वी तथा आकाशके बिचिमें संसर्ग स्थापित करनेमें बाधाओंसे भरे हुए हैं; अप्तुरः मुतमागन्त तूर्णयः । वे आयें, उन गौओंकी तरह जो सांध्य वेलामें अपने आश्रय-स्थानों पर पहुँचनेकी जल्दीमें होती हैं, उस्रा इव स्वसराणि । इस प्रकार प्रसन्नता- पूर्वक पहुँचकर वे प्रसन्नतापूर्वक यज्ञको स्वीकार करें और यज्ञसे संलग्न रहें तथा यज्ञको बहन करें, जिससे कि लक्ष्यकी तरफ अपनी यात्रामें, देवोंके प्रति या देवोंके घर-सत्य, बृहत्-के प्रति अपने आरोहणमें इस यज्ञ को वहन करते हुए वे इसे अन्त तक पहुँचा दें, मेधं जुषन्त वह्यय: ।
इसी प्रकार 'विश्वेदेवा:'के विशेषण भी, जो उनके उन स्वरूप तथा व्यापारों-को बताते हैं जिनके लिये वे सोम-हविके पास निमन्त्रित किये गये हैं, सबके लिये समान हैं; वे सब देवताओंके लिये एकसे है, और सारे वेदमें वे उनमेंसे किसीके लिये भी अथवा सभीके लिये समान रूपसे प्रयुक्त किये गये हैं । वे हैं मनुष्यके प्रतिपालक या परिवर्द्धक और कर्ममें, यज्ञमें उसके श्रम तथा प्रयत्नको अवलंब देनेवाले, ओमासश्चर्षणीधृत: । सायणने इन शब्दोंका अर्थ किया है, रक्षक तथा मनुष्योंके धारक । यहां इस बातकी आवश्यकता नहीं है कि इन शब्दोंको मैं जो अर्थ देना पसंद करता हूं उसके विषयमें पूरे-पूरे प्रमाण उपस्थित करनेमें प्रवृत्त होऊं; क्योंकि भाषा-विज्ञान- की जिस प्रणालीका मैं अनुसरण करता हूं उसे मैं पहले ही दिखा चुका हूं । सायणको स्वयमेव यह अशक्य प्रतीत हुआ है कि वह उन शब्दोंका सदा रक्षा अर्थ ही करे, जो अव् धातुसे बने अवस्, ऊति, ऊमा आदि शब्द हैं, जिनका बेदमन्त्रोंमें बहुत ही बाहुल्य पाया जाता है, और वह बाध्य होकर एक ही शब्दका भिन्न-भिन्न संदर्भोमें अत्यधिक भिन्न तथा संबन्धरहित अर्थ करता है । इसी प्रकार, जहाँ 'चंर्षणि' और 'कृष्टि' इन दो सजातीय शब्दों-के लिये जब ये अकेले आते हैं यह आसान है कि इन्हें 'मनुष्य'का अर्थ दे दिया जाय, वहां यह 'मनुष्य' अर्थ इनके समस्त रूपोंमें, जैसे कि 'विचर्षणि, 'विश्वचर्षणि, 'विश्वकृष्टि'में बिना किसी कारणके विलुप्त हो जाता है । १३०
सायण स्वयं इसके लिये बाध्य हुआ है कि वह विश्व-चर्षणिका अर्थ 'सर्वद्रष्टा' करे, न कि 'सब मनुष्य' या 'सर्व-मानवीय' । मैं यह नहीं मानता कि नियत वैदिक सज्ञाओंके अर्थोंमें इस प्रकारकी बिलकुल निराधार विभिन्नताएं संभव हो सकती है । 'अव्'के अर्थ हो सकते हैं होना, रखना, रख छोड़ना, धारण करना, रक्षा करना बन जाना, रचना करना, पोषण करना, वृद्धि करना, फलना-फूलना, समृद्ध होना, इश करना, खुश होना; पर वृद्धि करने या पालन-पोषण करनेका अर्थ ही मुझे वेदमें प्रधानतया प्रचलित प्रतीत होता है । 'चर्ष्' ' और 'कृष्' ये धातुएं मूलमें 'चर्' तथा 'कृ'से निकली थीं, जिन दोनोंका ही अर्थ है 'करना', और श्रमसाध्य क्रिया या गतिका अर्थ 'कृष्' (खींचना, हल जोतना ) में अब भी विद्यमान है । इसलिये 'चर्षणि' और 'कृष्टि'का अर्थ है प्रयत्न श्रमसाध्य क्रिया या कर्म अथवा इस प्रकारकी क्रियाको करनेवाले । ये उन अनेक शब्दों (कर्म, अपस्, कार, कीरि, दुवस् आदि ) मेंसे दो हैं जो वैदिक कर्मको, यज्ञको, अभीप्सा करती हुई मानवताके प्रयासको, आर्योंकी 'अरति'को दर्शानेके लिये प्रमुक्त किये गये हैं ।
मनुष्यकी जो सारभूत वस्तु है उस सबमें और उसकी सब प्राप्तियोंमें उसका पोषण या वृद्धि करना, बृहत् सत्य-चेतनाकी पूर्णता और समृद्धताकी ओर उसे सतत वृद्धिगत करना, उसके महान् संघर्ष और प्रयासमें उसे सहारा देना-यह है वैदिक देवताओंका सामान्य व्यापार । फिर वे हैं 'अप्तुर:', वे जो जलोंको पारकर जाते हैं, या जैसा सायण इसका अर्थ करता है, वे जो जलोंको देते हैं । इसका अर्थ वह ''वृष्टि-दाता'' समक्षता है, और यह पूर्णतया सच है कि सभी वैदिक देवता वर्षाके, आकाशसे आनेवाली बहुतायतके ( क्योंकि 'वृष्टि'के दोनों अर्थ होते हैं ) देनेवाले हैं । इस बहुतायतका कहीं-कहीं इस रूपमें वर्णन हुआ है-सौर जल, 'स्वर्वती: अप:' (ऋ. 5-2-11 ) अथवा वे जल जो ज्योतिर्मय आकाशके, 'स्वः'के प्रकाशको अपने अन्दर रखते हैं । परन्तु वेदमें समुद्र और उसके जल, जैसा कि. यह वाक्यांश स्वयं ही निर्देश करता है, प्रतीक हैं चेतनामय सत्ताके, उसके समुदायके और उसकी गतियोंके । देवता इन जलोंकी पूर्णताको बरसाते हैं, विशेषकर उपरले जलोंकी, उन 'जलोंकी जो आकाशके जल हैं, सत्यकी धाराएं हैं, 'ऋतस्य धारा:', और वे सब बाधाओंको पार करके मानवीय चेतनाके अन्दर. जा पहुंचते हैं । इस अर्थमें वे सब 'अप्तुरः' हैं । परन्तु साथ ही मनुष्यका भी इस रूपमें वर्णन हुआ है कि वह जलों को पार करके सत्य-चेतनाके अपने धरमें पहुंचता है और वहाँ देवता उसे पार पहुंचाते हैं; यह विचारणीय है कि कहीं 'अप्तुरः'का वास्तविक अर्थ यहाँ यह ही होता नहीं है, विशेषकर जब की १३१
अप्तुरः ..... तूर्णय:' इन दो शब्दोंको हम एक दूसरेके आसपास एक ऐसे सम्मन्ध में रखा हुआ पाते हैं जो बड़ी अच्छी तरह अर्थपूर्ण हों सकता है ।
फिर ये सभी देवता किन्हीं आक्रामकोंके ( स्त्रीष् ) आक्रमण हो सकनेसे सर्वथा मुक्त हैं, चोट पहुंचानेवाली या विरोधी शक्तियोंकी हानि ( द्रोह ) से रहित हैं और इसलिये उनके सचेतन ज्ञानकी सर्जक रचनाएं, उनकी ' माया:' स्वच्छन्द रूपसे, व्यापक रूपसे गति करती हैं, अपने ठीक उद्देश्यको प्राप्त कर लेती हैं--अस्त्रिष एहिमायासो अद्रुहः । यदि हम वेदके उन अनेक संदर्भोको ध्यानमें लाये जिनमें यह निर्देश किया गया है कि यज्ञ, कर्म, यात्रा, प्रकाशकी वृद्धि तथा जलोंकी अधिकताका सामान्य उद्देश्य सत्यचेतना, 'ॠतम्' की इसके परिणामभूत सुख, 'मयस'के सहित प्राप्ति है, तथा इस बातपर विचार करें कि ' विश्वेदेवः' के ये विशेषण सामन्य रूपसे असीम, पूर्ण सत्य- चेतनाकी शक्तियों पर घटते है, तो हम यह समझ सकते हैं फि सत्यकी यह उपलब्धि ही इन तीन ॠचाओंमें निर्दिष्ट हुई है । ये 'विश्वेदेवा:' मनुष्यकी वृद्धि करते हैं, ये उसे महान् कार्यमें सहारा देते हैं, ये उसके लिये ' स्व :' के जलोंकी प्रचुरताको, सत्यकी धाराओंको लाते हैं, ये सत्य-चेतनाकी अधृष्य रूपसे पूर्ण तथा व्यापक क्रियाका इसके ज्ञानकी विशाल रचनाओं, 'माय:' के साथ संसर्ग स्थापित करते हैं ।
इला इव स्वसराणि' इस वाक्यांशका अनुवाद मैंने यथासंभव अधिक-से- अधिक बाह्य अर्थमें किया है; पर वेदमें काव्यमय उपमाएं भी केवलमात्र शोभाके लिये बहुत ही कम या कहीं भी नहीं प्रयुक्त की गई हैं; उनका प्रयोग भी आध्यात्मिक अर्थको गहरा करनेके लिये एक प्रतीकात्मक अथवा दोहरे अर्थके अलंकारके साथ किया गया है । वेदमें 'उस्रा' शब्द 'गो' शब्दके समान ही, हर जगह दोहरे अर्थमें प्रयुक्त होता है, अर्थात् यह मूर्त आलंकारिक रूप या प्रतीक, बैल या गाय, के अर्थको देता है और साथ ही आध्यात्मिक अभिप्रायका, चमकीली या ज्योतिर्मय वस्तुओंका, मनुष्यके अन्दर जो सत्यकी प्रकाशमय शक्तियाँ हैं उनका भी निर्देश करता है । ऐसी प्रकशमय शक्तियों-के तौर पर ही 'विश्वेदेवाः' को आना होता है, और वे सोम-रसोंके पास आते हैं, 'स्वसराणि', मानो कि वे शान्ति या सुखके आसनों या रुपों पर आ रहे हों; क्योंकि 'स्वस्' धातु 'सस्' तथा! अन्य कई धातुओंके समान, दोनों अर्थ रखती है, विश्राम करना और आनन्द लेना । वे विश्वेदेवा: सत्य-की शक्तियां हैं जो मनुष्यके अन्दर होनेवाले आनन्द सतत प्रवाहोंमें प्रदेशकरती हैं, ज्यों ही कि इस कार्यकी अश्विनोंकी प्राण-क्रिया तथा मानसिक क्रियाकेद्वारा और इन्द्रकी विशुद्ध मानसिक क्रियाके द्वारा तैयारी हो चुकी होती है | १३२
"ओ पलन-पोषण करनेवालो, जो कर्ताको उसके कर्ममें सहारा दिये रहते हो, धारे रखते हो, ओ सब-देवो, आवो और बांट लो उस सोमरसको, जिसे मैं वितरित कर रहा हूं ।''
''ओ सब-देवताओ, जो हमें जलोंको उपरसे लाकर देते हो, पार उतर-कर आते हुए तुम मेरी सोमकी हवियोंके पास आओ, प्रकाशमय शक्तियोंके तौर पर अपने सुखके स्थानों पर आओ ।''
''ओ सब-देवताओ, तुम जो आक्रांत नहीं हो सकते हो, जिनको हानि नहीं पहुंचायी जा सकती है, अपने ज्ञानके रूपोंमें स्वच्छन्दताके साथ गति करते हुए तुम आकर मेरे यज्ञके साथ संलग्न रहो, उसके वहन करनेवाले होकर ।''
और अन्तमें, सूक्तकी अन्तिम श्रुंखलामें हम सत्य-चेतनाका इस रूपमें स्पष्ट और असंदिग्थ निर्देश पाते हैं कि वह यज्ञका ध्येय है, सोम-हविका उद्दिष्ट लक्ष्य है, प्राणशक्तिमें और मनमें अश्विनोंका, इच्छका और विश्वेदेवा:का जो कार्य है उसकी चरम कोटि है । क्योंकि ये तीन ऋंचाएं 'सरस्वती'को, दिष्य वाणीको अर्पितकी गई हैं, जो अन्तःप्रेरणाकी उस धाराको सूचित करती है जो सत्यचेतनासे अवरोहण करती है, उतरती है, और इस प्रकार निर्मल स्पष्टताके साथ उन ॠचाओंका आशय यह निकलता है-
''पावक सरस्वती, समृद्धिके अपने रूपोंकी संपूर्ण समृद्धताके साथ विचार- के द्वारा साररूपी ऐश्वर्यवाली होकर हमारे यज्ञको चाहे ।'' ''वह, सुखमय सत्योंकी प्रेरयित्री, चेतनामें अतियोंको जागृत करनेवाली सरस्वती यज्ञको धारण करती है ।'' ' 'सरस्वती ज्ञानद्वारा, बोधद्वारा चेतनाके अन्दर बड़ी भारी बाढ़को (ॠतम्की व्यापक गतिको ) जागृत करती है और समस्त विचारोंको प्रका-शित कर देती है ।''
इस सूक्तका यह स्पष्ट और उज्ज्वल अन्त उस सबपर अपना प्रकाश डालता है जो इस सूक्तमें पहले आ चुका है । यह वैदिक यज्ञ के तथा मन और आत्माकी एक अवस्थाके बीच घनिष्ठ संबन्ध दर्शाता है, धी और सोम-रसकी हवि और प्रकाशयुक्त विचार, आध्यात्मिक अन्तर्निहित ऐश्वर्यकी समृद्धि, मनकी सम्यक् और सत्य तथा प्रकाशकी ओर. इसकी जागृति और प्रवृत्ति, इनमें अन्योन्याश्रयता दर्शाता है । यह सरस्वतीकी प्रतिमाको इस रूपमें प्रकट करता है कि वह अन्तःप्रेरणाकी, 'श्रुति'की देवी है । और यह वैदिक नदियों तथा मनकी आध्यात्मिक अवस्थाओंके बीच संबन्ध स्थापित करता है | यह संदर्भ उन प्रकाशभरे संकेतोंमेंसे एक है जिन्हें १३३
ॠषियोंने अपनी प्रतीकामक शैलीकी जानबूझकर रची गयी अस्पष्टार्थओंके बीचमें कहीं-कहीं बिखरे रूपमें रख छोड़ा है, ताकि वे हमें उनके रहस्य तक पहुंचानेमें हमारे पथप्रदर्शक हो सकें । १३४
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